Monday, September 21, 2009

बुरी औरत - कृष्ण अग्निहोत्री


हां बोलो व्रंदा| इतनी रात को क्यों फ़ोन किया?
एक चक्र्दानी में फस गयी हूँ
आपका सुझाव ही मैडम  इस खाई से बहार निकाल सकता है
पत्र लिखा है आपको
 प्रात: विभा को पेपर पढ़ते समय अचानक कस्बे का वो काले पत्थर का महाविधालय स्मरण हुआ जहाँ उसकी ऍमए पढाने हेतु पोस्टिंग हुई
विभा यहाँ खुश थी
ऍमए की बीस - पच्चीस लड़कियां, उसका छोटा सा परिवार थी
और वो सबसे सीधा सम्पर्क बना उन्हें मार्गदर्शन दे सकती थी
दोपहर ही पत्र का बडा बण्डल स्पीड पोस्ट से आ गया जो स्वयं ही एक कहानी था
वृंदा सिंह सामने अपना हलफनामा लिए खडी थी
मैं चालीस साल की ओरत के पीछे खडी उस दुबली पतली लड़की को देख रही थी जिसकी खुबसूरत आँखे मछली जैसे चेहरे पर टंकी थी


वृंदा जो मेरी प्रिय छात्रा थी, कक्षाए लगातार बंक करती
एक दिन सिनेमागृह से निकलती मुझे दिख गई
मैने जैसे ही अनुशासन एवं सच्चाई की बात कही, वृंदा मेरे पीछे कैंटीन आई व सिसकती बोली - 'मैं बुरी लड़की नहीं, अमूल्य मुझसे सिंसियर है
वो मुझ से सादी करना चाहता है
हम प्रेम करते है मैडम पर मामी-पापा इस जाति में ब्याह नहीं करेंगे'

तो क्या इस तरह घुमोगी? या भागोगी


नहीं, पर सादी तो उसी से करूंगी


ठीक है तुम अमूल्य को मेरे पास भेजो
देंखू तो की वो कितना इमानदार हैं


जी


यदि वो नहीं आया तो? तुम्हें माँ-बाप की बात माननी पड़ेगी


आया तो आप मेरे घरवालों को समझाएगी न


हां, लेकिन अमूल्य मिलने नहीं आया और विभा रिटायर्ड हो उज्जैन आ बसीं
वहीं उसे वृंदा की शादी का कार्ड मिला था


* * * * * *

समय तो बंधता नहीं


कुछ वर्षो पहले वृंदा ने पीएचडी का विषय भी पूछा था
अब दस वर्ष बाद वृंदा की आत्मस्वीक्रति विभा के सामने खड़खड़ा रही थी


मैडम, कुछ बनने की प्रेरणा आप देती रही
आप मेरी सशक्त छत्रछाया हैं
आपसे शिक्षक ही हाथों में शक्ति भर देते हैं
इसलिए हिंदी साहित्य समिति में हम जान देकर काम करते
वैसे भी आपसे यह तो छुपा नहीं की मैं ठाकुर परिवार की ज्येष्ठ पुत्री हूँ
बेटे की जगह यह गुदगुदी लड़की को उन्होंने लक्ष्मी मन ग्रहण तो किया पर मैं उनकी प्रिय संतान कभी नहीं बन पाई
मुझे गृहस्थी का बोझ पन्द्रह वर्ष की आयु में रास नहीं आया
उस पर उनके स्नेहास्पर्श से शून्य पथरीले खामोश व्यवहार ने मुझे जड़ बना दिया
माँ से बहुत लगाव के बावजूद मैं उनके कठोर व्यवहार से भयभीत व डरी रहती
यूँ आज भी स्थूल, गोरी, बड़ी आँखों वाली माँ का स्मरण मुझे रुला देता हैं
पिता व माँ भी एक वाक्य तो दोहरा ही देते 'वृंदा अच्छी लड़की बनों
' मेरा बचपन अपने अपने अस्तित्व को आच्छे-बुरी की तराजू में स्वयं को तोलने के लिए रजामंद नहीं था
मुझे तो माँ-बाप के चेहरे किसी मठ के मठाधीश से कठोर, निर्जीव लगते
जिसके शब्द किसी धार्मिक पाठ से बेस्वाद होते, क्योंकि भाई को महत्व दे, वे उसे विशेष सुविधाएँ मुहैया करवाते
हम बहनों को उसका हुक्मनामा बजाना ही पड़ता


मैं माता-पिता के कठोर व्यवहार का पुरजोर विरोध करना चाहती पर उनकी सख्त मुद्रा मुझे चुप रहने पर मजबूर कर देती
मेरा हरा-भरा जीवंत शरीर यह नहीं समझ पाता कि माँ मुझे क्यों बार-बार देह शुचिता की बात समझाती है और गन्दी और क्यों होती है, यह उन्होंने नहीं समझाया
माँ की घूरती आँखों मेरी जिज्ञासा के भूर्ण की हत्या कर देती
उस पर बुआ गायत्री मंत्र, पिता जी हवन और माँ पूजा करने पर जोर देती, तो मुझे समझ नहीं आता कि मुझे ये सुब क्या बनाना चाहते हैं
पूरे समय आच्छे बनने के उपदेश तले मुझे एक ही बात समझ आती कि पुरे समय पढो या काम करने वाली ही अच्छी लड़की होती हैं
नये सदस्य मेरे मामा के आवक से सभी ताश खेलते, कचोरियाँ चबाते खुश थे, पर मैं दूर ही रहती, क्योंकि मेरे ये दूर के रिश्ते के मामा मुझसे दबे स्वर में कहते, 'बिहो तुम बहुत ही सुंदर हो|' यहाँ तक कि यदा-कदा वे मुझसे लाड़ कर जोर से दबा लेते, जो मुझे आच्छा नहीं लगता| यहां तक कि एक दिन गोदी में बैठा कर वे सुब कुछ करते जो मेरे अनुभव से परे था| माँ से शिकायत का अर्थ था मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना| माँ का ही यह कर्तव्य था कि वे ऐसे अधेड़ गंदे व्यक्ति के भरोसे मुझे क्यों अकेले छोड़ जाती|
पड़ोस के हमउम्र मित्र अमूल्य से ही सुब कुछ बताया पर वो अज्ञानी था तब भी समझाया, 'तुम उस आवारा पशु से अब दूर ही रहना| उसका कोई स्टेट्स नहीं' अमूल्य कि मधुर सलाह से अब मैं उस से दिल खोल कर सुख-दुःख बांट सकती थी| माँ कभी शिव, दुर्गा तो कभी शनि का व्रत रखवाती और कहती अच्छी लड़की बनना| बड़े होते-होते अमूल्य मेरा हमदम दोस्त और शनै:-शनै: मेरा प्रेमी बन गया| एक दिन उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा वो मुझ से प्रेम करता हैं|
तुम्हे कैसे पता कि तुम मुझ से प्रेम करते हो?
अनुभूत होता है प्रेम| जिन तथ्यों में प्रमाणिकता नहीं वे मुझे नहीं लुभा पाई| मैं सख्ती से अपनी भावनाओ को लहुलुहान करती रही| रोज प्रार्थना करती - हे ईश्वर मुझे अच्छी लड़की बनाना|
कॉलेज आते-आते में बुरी लड़की बन गई| छुपकर मैं अमूल्य के साथ मूवी देख गोल्गपे खा लेती| तभी आप मेरी जिंदगी में आई और आप मेरा आदर्श बन गई| आपके सुझाव अनुसार कायर अमूल्य को कोसती  मैने पिता के चुने वर व्याख्याता मनीष से सहर्ष विवाह कर लिया| उसके सहयोग से मुझे भी एक छोटे महाविद्यालय में जॉब मिला|
हम अपनी तय सुदा जिंदगी को ओढ़ भरपूर ख़ुशी के आवरण में जीने लगे| मैंने तो व्यस्तता बीच इतना भी नहीं समझा कि कब मनीष के अंडर लड़किया पीएचडी हेतु रजिस्टर्ड हो गई| भागती-दोड़ती जिंदगी के दोरान एक शाम मनीष के प्राचार्य डिनर पर आए, तो उन्होंने सहज ही यह पूछकर, 'मनीष तुम्हारे कितने बच्चे है, हमे चोका दिया| अपनी गफलत दूर करने के लिए हमने गाय्नोकोलोस्ति तक दोड़ लगा दि| उन्होंने समझाया कि किसी भीतरी धक्के से बच्चेदानी की नसे डेमेज हो गई है| इसलिए बच्चे होना या न होना इतेफाक ही होगा| और संभव ट्रीटमेंट प्रारम्भ हो गया| अब प्रारम्भ हुआ आरोप- प्रत्यारोप को बेहूदा सिलसिला, 'ये कैसे हुआ, भीतरी नसे क्यों डेमेज हुई|' मनीष के प्रति पूरी तरह एक सती नारी सी समर्पित नारी अपने अतीति भूत को यूँ जाग्रत होते देख भोचक्क थी| मैं तो पति के साथ पति के लिए ही जी रही थी| तब सतीत्व की सजा क्यों? मैंने तो माँ की दी उस पतली सी किताब में पढा था की सती नारियो ने ईश्वर को हरा दिया| सती उसे कहते है जिसके शरीर को पति के अतरिक्त अन्य न छुए, तो मैं होश-हवाश में सदा मनीष की ही रही| मैंने तो उसके अतीत को कभी नहीं खोदा| उसके कुछ दबावों, हठों को नज़रंदाज़ कर अच्छी स्त्री बनी रही|
कुछ मित्रो ने अनाथालय से बच्चा गोद लेने की बात कही| पर मनीष टाल गया|  गर्मियों की छुट्टी में मैं मायके आ गई| दो माह तक भी मनीष का कोई पत्र नहीं आया| मैं स्वयं ही जब लौटी तो मनीष के कटु व्यवहार से अचम्भित हो गई| वह झुंझलाता, कोसता और बात-बात पर प्रताड़ित करता, 'तुम्हे पहनना-ओढ़ना, बात करना नहीं आता| रुपये कम खर्च करा करो, फ्लैट बुक है| मैं मांग के सिंदूर की अग्नि रेखा में जलती अपने वजूद को सामाजिक सुरक्षा देने हेतु जी रही थी| मैंने इस पर भी पुरे विस्वास से अपने पीएचडी के कार्य को संशोधित करने हेतु मनीष को दे दिया| जिसे उसने कई रीमाइंद्र बावजूद नहीं लौटाया| कुछ समय बाद पता चलने पर मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरे विषय ही पर कुछ संशोधन के बाद मनीष कि छात्रा प्रिया ने थीसिस जमा कर दी|
मेरी चार वर्षो कि मेहनत का यह हश्र होते देख मेरी मनःस्थति फटी कि फटी रह गई| मैं पुरे समय अपनी निकम्मी, डरपोक स्थति में सिमटी स्वयं को आत्महत्या हेतु तैयार कर रही थी| पर आपने ही तो संभाला कि तुम मेरी शिष्य होकर इतनी कायर हो? आदर्श जब अत्याचार बने तो उन्हें छोड़ देना चाहिए| मैडम तभी पूरी शक्ति चेतना से एक झूठ के पुरजोर विरोध में खड़े हो मैं एक बुरी औरत बन गई| समाज में पति का विरोध तो दुराचारिणी ही करती है| मैने चुपचाप कुलपति रजिस्टार को अपनी किनोप्सिस, रफ कार्य पूरा दिखा दिया और मनीष व प्रिया पर इन्कुइरी कमेठी बैठ गई| बस उसी रात मनीष ने मुझे कुर्सी से बांध सिगरेट से दाग कहा, 'बांझ इतनी हिम्मत? मैं अपनी जिंदगी को ले कुछ सोचती कि अचानक मनीष ने माफ़ी मांगी 'अरे यार कुछ ज्यादा ही पि ली थी| माफ़ कर दो| अब ऐसा नहीं होगा|' बस मैं पुनः सती बन गई| कुछ दिनों बाद मनीष ने मुझसे कुछ पेपरों पर दस्तखत करवाए| ये फ्लैट के कागज हैं| लोन पूरा ही हो गया है| अब फ्लैट हमारा होगा| पुरे हफ्ते मनीष प्रेम जता आक्रामक ढंग से मुझे भोगता रहा| और बहार वायवा लेने चला गया| एक हफ्ते ही में मुझे तलाक का नोटिस मिला और पता चला कि मनीष प्रिया के साथ विदेश भी चला गया|
अनेक सनसनाती फूसफुसाहटो व आलोचनाओ के मध्य मैं तड़पती सुनती रही, ' वृंदाजी दूध कि धुली तो न होगी वरना पति क्यों छोड़ता?
मनीष फ्लैट बेच उसके रुपए व हमारे ज्वाइंट अकाउंट से सब निकाल ले गया| रह गई मेरी घायल आत्मा जिसका कोई पंचनामा न हुआ| जर्जर नाव,पुराने किवाडो सी चरमराती मैं गमले के पौधे सी ठिठकी उखड़े नाखुनो सा दर्द सहती जीवन को व्यवस्थित करने कि राह ढूंढ़ रही थी|
*     *     *     *     *     *
प्रमोशन देते समय प्राचार्य  क्लर्क से कह रहे थे- पता नहीं ये फ्रस्तेड लेडी कैसे सब संभालेगी| आंसू व मेमना बन मैं पगडंडी भी नहीं खोज सकती थी| तभी लिखा-
ओ ईश्वर
भीतरी अंधकार में
इस तरह छेद कर
कि प्रकाश ही जगमगाए|
और मैं उसमे खो जाऊँ|
बस कविताएँ, मंच, मस्ती, खा-पि कमाओ, न चाहकर भी स्थितियों आ टकराती हैं| मैं मंत्री उदय शर्मा से टकराई|
 हम अच्छे परिचित हुए| वे कहने लगे, 'यूं तो वृंदा स्त्रियों का अभाव नहीं पर मैं तुम्हे पसंद कर सम्मान करता हूं|
तुम क्यों नहीं मेरी जिंदगी में आ जाती| हम मिलकर एक स्वस्थ राजनीती में उतरेंगे व अपना जीवन संवार लेंगे| मेरी पाक पगडण्डी थी| मैं सारी मान्यताए ताक पर रख कर मनीष के अन्याय के तंत्र को तोड़ती उदय के साथ राजनीती में कुद बुरी औरत बन गई| मैंने अपनी महत्वकांक्षाओ कि पूर्ति हेतु उदय रूपी सीढी आपना ली| उनके साथ घुमती, पीती और राजनीती कि पकड़ तगड़ी करती|
मैंने ही उदय का दोहन किया, वह भी लगाव रहित होकर |
मुझे ताज्जुब था कि कब कैसी मेरी देह में बसंत मुस्कराया और मेरी रेगिस्तान जिंदगी में हरियाली फूटी| हां मैडम मैं दो माह में ही गर्भवती हो गई|
प्रेम कि मिठास, विश्वाश कि कोई सर्वस्वीक्रत परिभाषा तो होती नहीं|  उदय न जाने कब मेरे प्रति गंभीर हो गए| वो जानते थे कि मनीष को तलाक न दे दंडित करना चाहती हूं| इसलिए वो मेरे प्रति प्रतिकारक रहे|
मैं सुबसे जूठ कहकर  कि गर्भ मनीष का है, उदय के बेटे कि माँ बन गई| उदय मुझे मात्र स्त्री नहीं प्राणी समझ मेरी सूझ बुझ व योग्यता को नाप रीझते मेरे बेटे के पुरे पिता बने| उसे सुरक्षा देते रहे|
माँ-पिता ने दूरदुराया तो मैं तल्खी सी तन बोली, 'जलती रही हूं, सिकती रही मैं थक गई| पर आँखे नहीं जली| अब मैं परिणाम, साधन, साध्य परख सकती हू| मुझे धधक कर सती-साध्वी का तगमा नहीं चाहिए| मैं कोई बंधन काट जीने के पैमाने तय करूंगी| सत्य समाज सुनेगा नहीं| मैं निरीह स्त्री सी अत्याचारों में तुलने को सहमत न थी| लगातार पांच वर्षो से समाज सेवा में निष्ठा से उदय के साथ रह राजनीति में कूदी हूं|
राजनीति दलदल है| परन्तु कीचड़ से डरेंगे तो सफाई कौन करेंगा? मैंने साध्य पर ध्यान रखा| दूध कि धुली भी नहीं|
लाभ तो उठाती हूं पर दाल में नमक बराबर लेकिन काम है दाल बराबर| पत्र समाप्त हुआ| वह उठी थी पूजा-पाठ के बाद बरामदे में आते ही देखा कि वृंदा ने अपने कारवां के साथ प्रवेश किया और झुककर उसने उसके पैर छुए, 'मैडम कुछ बनने के चक्कर में बनी एक बुरी औरत|'
मैं हंसी, बैठिए बाल विकास मंत्री जी| कैसी हो और वृंदा को गले लगा वो बोली, आप अपने जैसी और कुछ दुखी स्त्रियों को भी अपना सा बुरा बनती रहे, यही मेरा आशीर्वाद है|
हां, कब कर रही है उदयजी से विवाह|
'जल्दी ही|' वृंदा के चेहरे पर संतुष्टि खिल रही थी| कुछ बन जाने का अहसास उसकी आँखों व व्यक्तित्व को चमका रहा था|

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