Tuesday, September 22, 2009

वह जो आदमी है न - हरिशंकर परसाई

निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं. निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है. निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं. निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है. संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं. ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है. संत बड़ा कांइया होता है. हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है. स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी. अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है. मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं. मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे- आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?




मैंने ध्यान नहीं दिया. उन्होंने फिर कहा- वह शराब पीता है. निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है. वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए. अब मुझे दया आ गई. उनका चेहरा उतर गया था. मैंने कहा- पीने दो. वे चकित हुए. बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?



मैंने कहा- हां, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक. उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है. उन्हें संतोष नहीं हुआ. वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे. तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले- आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?



अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए. कहने लगे- ये तो प्राईवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब. मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राईवेट बात है. मगर इससे आपको जरूर मतलब है. किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे- वह बड़ा दुराचारी है. वह उड़द की दाल खाता है. तनाव आ गया. मैं पोलाइट हो गया- छोड़ो यार, इस बात को. वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं. सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है. कहते हैं- तुमने मुझे अमर बना दिया. यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं.(ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी.) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे.



चेतना का विस्तार. हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं. एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं. पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं. कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं. वे यों भी भले आदमी हैं. पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते. मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है. इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं- मिरगी की तरह. सुना है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है. इसका उल्टा भी होता है. किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है. यह नुस्खा भी आजमाया हुआ है. एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था. एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे(आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं. वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं). यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं. उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे. कबीर ने कहा है- ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’. यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले. नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था. हमने कहा- अब इन्हें मत भेजो. ये अंग्रेजी बोलने लगे. पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था. कहने कहने लगे- नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा. ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए. थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं. जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए. यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है. रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है. ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है. कहा- इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री. और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे. जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो. तुमने ‘इंडिया’ खा लिया. बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो. अंग्रेज ने कहा- अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं. हम तो जाते हैं. तुम खाते रहना. यह बातचीत 1947 में हुई थी. हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई. बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर है- सत्ता का हस्तांतरण. मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ- थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई. वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे. ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं.



फिर राजनीति आ गई. छोडि़ए. बात शराब की हो रही थी. इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर. नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी. मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था. मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था. मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं. वह शराब से स्त्री पर आ गया- और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं.



मैंने कहा- हां, यह बड़ी खराब बात है.



उसका चेहरा अब खिल गया. बोला- है न?



मैंने कहा- हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है.



वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया. सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊंचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा. वह उठ गया. और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है. कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं. आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है. किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए. ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं. हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं- तेरे भीतर क्या छिपा है?



एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं- उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए. वह चरित्रहीन है. वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है. उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे. जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है- ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी. वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता. एक स्त्री से उसकी मित्रता है. इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया. बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का. कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए. वे परेशान होंगे. बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है. तब उन्होंने कहा होगा- ज्यादा झंझट में मत पड़ो. मामला सरल कर लो. सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच में रख लो.

भोलाराम का जीव - श्री हरिशंकर परसाई


धर्मराज लाखों वर्षो से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग और नरक में निवास-स्थान अलाट करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।




सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोरों से बन्द किया कि मख्खी चपेट में आगई। उसे निकालते हुए वे बोले, ''महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पांच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर अभी तक यहां नहीं पहुंचा।''



धर्मराज ने पूछा, ''और वह दूत कहां है?''



''महाराज, वह भी लापता है।''इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहां आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत होगया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, ''अरे तू कहां रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहां है?''




यमदूत हाथ जोडक़र बोला, ''दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊं कि क्या हो गया। आज तक मैने धोखा नहीं खाया था, पर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पांच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागा, तब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्योंही मैं इसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्योंही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहां गायब होगया। इन पांच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर उसका पता नहीं चला।''



धर्मराज क्रोध से बोले, ''मूर्ख, जीवों को लाते-लाते बूडा हो गया, फिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।''



दूत ने सिर झुकाकर कहा, ''महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके, पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।''



चित्रगुप्त ने कहा, ''महाराज, आजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते है, और वे रास्ते में ही रेलवे वाले उडा देते हैं। होज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाडी क़े डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उडा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद, खराबी करने के लिए नहीं उडा दिया?''



धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, ''तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला, भोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?''




इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि वहां आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, ''क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बेठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?''



धर्मराज ने कहा, ''वह समस्या तो कभी की हल हो गई। नरक में पिछले सालों से बडे ग़ुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाई। बडे-बडे इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपा, जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक विकट उलझन आगई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पांच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहां ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।''



नारद ने पूछा, ''उस पर इनकम टैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने उसे रोक लिया हो।''



चित्रगुप्त ने कहा, ''इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।''



नारद बोले, ''मामला बडा दिलचस्प है। अच्छा, मुझे उसका नाम, पता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूं।''
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया - ''भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लडक़े और एक लडक़ी। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पांच साल पहले रिटायर हो गया था, मकान का उस ने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड दिया। आज पांचवां दिन है। बहुत संभव है कि, अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसने भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।''




मां बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहिचान गए।



द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, ''नारायण नारायण !'' लडक़ी ने देखकर कहा, ''आगे जाओ महाराज।''



नारद ने कहा, ''मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी मां को ज़रा बाहर भेजो बेटी।''



भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, ''माता, भोलाराम को क्या बिमारी थी?''क्या बताऊं? गरीबी की बिमारी थी। पांच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थे, पर पेन्शन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थे, पर वहां से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेन्शन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पांच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।''




नारद ने कहा, ''क्या करोगी मां? उनकी इतनी ही उम्र थी।''



''ऐसा मत कहो, महाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेन्शन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पांच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौडी नहीं मिली।''



दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, ''मां, यह बताओ कि यहां किसी से उनका विषेश प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?''



पत्नी बोली, ''लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से होता है।''



''नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, कोई स्त्री?''स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, ''बको मत महाराज ! साधु हो, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आंख उठाकर नहीं देखा।''




नारद हंस कर बोले, ''हां, तुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा माता, मैं चला।'' व्यंग्य समझने की असमर्थता ने नारद को सती के क्रोध की ज्वाला ने बचा लिया।



स्त्री ने कहा, ''महाराज, आप तो साधु हैं, सिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रूकी पेन्शन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?''



नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, ''साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहां कोई मठ तो है नहीं? फिर भी सरकारी दफ्तर में जाऊंगा और कोशिश करूंगा।''



वहां से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुंचे। वहां पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, ''भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थीं, पर उनपर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।''



नारद ने कहा, ''भई, ये पेपरवेट तो रखे हैं, इन्हें क्यों नहीं रख दिया?''



बाबू हंसा, ''आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।''नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजा, चौथे ने पांचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, '' महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहां साल-भर भी चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बडे साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जाएगा।''




नारद बडे साहब के कमरे में पहुंचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थे, इसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बडे नाराज़ हुए।बोले, इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धडधडाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?''



नारद ने कहा, ''कैसे भेजता, चपरासी सो रहा है।''



''क्या काम है?'' साहब ने रौब से पूछा।



नारद ने भोलाराम का पेन्शन-केस बतलाया।



साहब बोले, ''आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी मन्दिर है। यहां भी दान-पुण्य करना पडता है, भेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड रही हैं, उन पर वज़न रखिए।''



नारद ने सोचा कि फिर यहां वज़न की समस्या खडी हो गई। साहब बोले, ''भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेन्शन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता है, तब पक्की होती है। हां, जल्दी भी हो सकती है, मगर '' साहब रूके।



नारद ने कहा, ''मगर क्या?''साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, ''मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लडक़ी गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधु-संतों की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लडक़ी जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।''




नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर संभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, ''लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेन्शन का आर्डर निकाल दीजिए।''



साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।



साहब ने हुक्म दिया, ''बडे बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।''



थोडी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेन्शन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, ''क्या नाम बताया साधुजी आपने!''



नारद समझे कि ऊंचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, ''भोलाराम।''



सहसा फाइल में से आवाज़ आई, ''कौन पुकार रहा है मुझे? पोस्टमैन है क्या? पेन्शन का आर्डर आ गया क्या?''



साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, ''भोलाराम, तुम क्या भोलाराम के जीव हो?''



''हां।'' आवाज़ आई।



नारद ने कहा, ''मैं नारद हूं। मैं तुम्हें लेने आया हूं। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।''



आवाज़ आई, ''मुझे नहीं जाना। मैं तो पेन्शन की दरखास्तों में अटका हूं। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरखास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता।''




ठिठुरता हुआ गणतंत्र —हरिशंकर परसाईं


चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ़ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब


से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।

इतना बेवकूफ़ भी नहीं कि मान लूँ , जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है।

आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है?

जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा-जरा धीरज रखिए। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए।

दिए। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अन्तरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे।

इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा-’हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे।

एक सिण्डीकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा- ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?

मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूँ। वह कहता है-’सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। काँग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-काँग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या ,उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे।

जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा-’ सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा।

साम्यवादी ने मुझसे साफ़ कहा-’ यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’

स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा-’ रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा?

प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा-’ सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फ़ैसला होगा। तब बताऊँगा।’

राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’

मैं इंतजार करूँगा, जब भी सूर्य निकले।



स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।

स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है।

मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है-’घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे।



लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं-’गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं-’ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’



गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए

जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आन्ध्र की झाँकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुंचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा हज़ारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता- ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं।



जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहां अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा। मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा।

समाजवाद टीले से चिल्लाता है-’मुझे बस्ती में ले चलो।’

मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं -’पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’



समाजवाद की घेराबंदी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतान्त्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रान्तिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है-’ लो, मैं समाजवाद ले आया।’

समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं।’खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है।



इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है।



मैं एक कल्पना कर रहा हूँ।

दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा-’समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है।उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त किया जाए।

एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा-’लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतज़ाम करो। नाक में दम है।’

कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को।

पुलिस-दफ़्तरों में फरमान पहुँचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो।

दफ़्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे-’काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’

तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे-’अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’

तमाम अफसर लोग चीफ़-सेक्रेटरी से कहेंगे-’सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।’

मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा-’हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।’



जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जायें और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ़्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।




Monday, September 21, 2009

बुरी औरत - कृष्ण अग्निहोत्री


हां बोलो व्रंदा| इतनी रात को क्यों फ़ोन किया?
एक चक्र्दानी में फस गयी हूँ
आपका सुझाव ही मैडम  इस खाई से बहार निकाल सकता है
पत्र लिखा है आपको
 प्रात: विभा को पेपर पढ़ते समय अचानक कस्बे का वो काले पत्थर का महाविधालय स्मरण हुआ जहाँ उसकी ऍमए पढाने हेतु पोस्टिंग हुई
विभा यहाँ खुश थी
ऍमए की बीस - पच्चीस लड़कियां, उसका छोटा सा परिवार थी
और वो सबसे सीधा सम्पर्क बना उन्हें मार्गदर्शन दे सकती थी
दोपहर ही पत्र का बडा बण्डल स्पीड पोस्ट से आ गया जो स्वयं ही एक कहानी था
वृंदा सिंह सामने अपना हलफनामा लिए खडी थी
मैं चालीस साल की ओरत के पीछे खडी उस दुबली पतली लड़की को देख रही थी जिसकी खुबसूरत आँखे मछली जैसे चेहरे पर टंकी थी


वृंदा जो मेरी प्रिय छात्रा थी, कक्षाए लगातार बंक करती
एक दिन सिनेमागृह से निकलती मुझे दिख गई
मैने जैसे ही अनुशासन एवं सच्चाई की बात कही, वृंदा मेरे पीछे कैंटीन आई व सिसकती बोली - 'मैं बुरी लड़की नहीं, अमूल्य मुझसे सिंसियर है
वो मुझ से सादी करना चाहता है
हम प्रेम करते है मैडम पर मामी-पापा इस जाति में ब्याह नहीं करेंगे'

तो क्या इस तरह घुमोगी? या भागोगी


नहीं, पर सादी तो उसी से करूंगी


ठीक है तुम अमूल्य को मेरे पास भेजो
देंखू तो की वो कितना इमानदार हैं


जी


यदि वो नहीं आया तो? तुम्हें माँ-बाप की बात माननी पड़ेगी


आया तो आप मेरे घरवालों को समझाएगी न


हां, लेकिन अमूल्य मिलने नहीं आया और विभा रिटायर्ड हो उज्जैन आ बसीं
वहीं उसे वृंदा की शादी का कार्ड मिला था


* * * * * *

समय तो बंधता नहीं


कुछ वर्षो पहले वृंदा ने पीएचडी का विषय भी पूछा था
अब दस वर्ष बाद वृंदा की आत्मस्वीक्रति विभा के सामने खड़खड़ा रही थी


मैडम, कुछ बनने की प्रेरणा आप देती रही
आप मेरी सशक्त छत्रछाया हैं
आपसे शिक्षक ही हाथों में शक्ति भर देते हैं
इसलिए हिंदी साहित्य समिति में हम जान देकर काम करते
वैसे भी आपसे यह तो छुपा नहीं की मैं ठाकुर परिवार की ज्येष्ठ पुत्री हूँ
बेटे की जगह यह गुदगुदी लड़की को उन्होंने लक्ष्मी मन ग्रहण तो किया पर मैं उनकी प्रिय संतान कभी नहीं बन पाई
मुझे गृहस्थी का बोझ पन्द्रह वर्ष की आयु में रास नहीं आया
उस पर उनके स्नेहास्पर्श से शून्य पथरीले खामोश व्यवहार ने मुझे जड़ बना दिया
माँ से बहुत लगाव के बावजूद मैं उनके कठोर व्यवहार से भयभीत व डरी रहती
यूँ आज भी स्थूल, गोरी, बड़ी आँखों वाली माँ का स्मरण मुझे रुला देता हैं
पिता व माँ भी एक वाक्य तो दोहरा ही देते 'वृंदा अच्छी लड़की बनों
' मेरा बचपन अपने अपने अस्तित्व को आच्छे-बुरी की तराजू में स्वयं को तोलने के लिए रजामंद नहीं था
मुझे तो माँ-बाप के चेहरे किसी मठ के मठाधीश से कठोर, निर्जीव लगते
जिसके शब्द किसी धार्मिक पाठ से बेस्वाद होते, क्योंकि भाई को महत्व दे, वे उसे विशेष सुविधाएँ मुहैया करवाते
हम बहनों को उसका हुक्मनामा बजाना ही पड़ता


मैं माता-पिता के कठोर व्यवहार का पुरजोर विरोध करना चाहती पर उनकी सख्त मुद्रा मुझे चुप रहने पर मजबूर कर देती
मेरा हरा-भरा जीवंत शरीर यह नहीं समझ पाता कि माँ मुझे क्यों बार-बार देह शुचिता की बात समझाती है और गन्दी और क्यों होती है, यह उन्होंने नहीं समझाया
माँ की घूरती आँखों मेरी जिज्ञासा के भूर्ण की हत्या कर देती
उस पर बुआ गायत्री मंत्र, पिता जी हवन और माँ पूजा करने पर जोर देती, तो मुझे समझ नहीं आता कि मुझे ये सुब क्या बनाना चाहते हैं
पूरे समय आच्छे बनने के उपदेश तले मुझे एक ही बात समझ आती कि पुरे समय पढो या काम करने वाली ही अच्छी लड़की होती हैं
नये सदस्य मेरे मामा के आवक से सभी ताश खेलते, कचोरियाँ चबाते खुश थे, पर मैं दूर ही रहती, क्योंकि मेरे ये दूर के रिश्ते के मामा मुझसे दबे स्वर में कहते, 'बिहो तुम बहुत ही सुंदर हो|' यहाँ तक कि यदा-कदा वे मुझसे लाड़ कर जोर से दबा लेते, जो मुझे आच्छा नहीं लगता| यहां तक कि एक दिन गोदी में बैठा कर वे सुब कुछ करते जो मेरे अनुभव से परे था| माँ से शिकायत का अर्थ था मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना| माँ का ही यह कर्तव्य था कि वे ऐसे अधेड़ गंदे व्यक्ति के भरोसे मुझे क्यों अकेले छोड़ जाती|
पड़ोस के हमउम्र मित्र अमूल्य से ही सुब कुछ बताया पर वो अज्ञानी था तब भी समझाया, 'तुम उस आवारा पशु से अब दूर ही रहना| उसका कोई स्टेट्स नहीं' अमूल्य कि मधुर सलाह से अब मैं उस से दिल खोल कर सुख-दुःख बांट सकती थी| माँ कभी शिव, दुर्गा तो कभी शनि का व्रत रखवाती और कहती अच्छी लड़की बनना| बड़े होते-होते अमूल्य मेरा हमदम दोस्त और शनै:-शनै: मेरा प्रेमी बन गया| एक दिन उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा वो मुझ से प्रेम करता हैं|
तुम्हे कैसे पता कि तुम मुझ से प्रेम करते हो?
अनुभूत होता है प्रेम| जिन तथ्यों में प्रमाणिकता नहीं वे मुझे नहीं लुभा पाई| मैं सख्ती से अपनी भावनाओ को लहुलुहान करती रही| रोज प्रार्थना करती - हे ईश्वर मुझे अच्छी लड़की बनाना|
कॉलेज आते-आते में बुरी लड़की बन गई| छुपकर मैं अमूल्य के साथ मूवी देख गोल्गपे खा लेती| तभी आप मेरी जिंदगी में आई और आप मेरा आदर्श बन गई| आपके सुझाव अनुसार कायर अमूल्य को कोसती  मैने पिता के चुने वर व्याख्याता मनीष से सहर्ष विवाह कर लिया| उसके सहयोग से मुझे भी एक छोटे महाविद्यालय में जॉब मिला|
हम अपनी तय सुदा जिंदगी को ओढ़ भरपूर ख़ुशी के आवरण में जीने लगे| मैंने तो व्यस्तता बीच इतना भी नहीं समझा कि कब मनीष के अंडर लड़किया पीएचडी हेतु रजिस्टर्ड हो गई| भागती-दोड़ती जिंदगी के दोरान एक शाम मनीष के प्राचार्य डिनर पर आए, तो उन्होंने सहज ही यह पूछकर, 'मनीष तुम्हारे कितने बच्चे है, हमे चोका दिया| अपनी गफलत दूर करने के लिए हमने गाय्नोकोलोस्ति तक दोड़ लगा दि| उन्होंने समझाया कि किसी भीतरी धक्के से बच्चेदानी की नसे डेमेज हो गई है| इसलिए बच्चे होना या न होना इतेफाक ही होगा| और संभव ट्रीटमेंट प्रारम्भ हो गया| अब प्रारम्भ हुआ आरोप- प्रत्यारोप को बेहूदा सिलसिला, 'ये कैसे हुआ, भीतरी नसे क्यों डेमेज हुई|' मनीष के प्रति पूरी तरह एक सती नारी सी समर्पित नारी अपने अतीति भूत को यूँ जाग्रत होते देख भोचक्क थी| मैं तो पति के साथ पति के लिए ही जी रही थी| तब सतीत्व की सजा क्यों? मैंने तो माँ की दी उस पतली सी किताब में पढा था की सती नारियो ने ईश्वर को हरा दिया| सती उसे कहते है जिसके शरीर को पति के अतरिक्त अन्य न छुए, तो मैं होश-हवाश में सदा मनीष की ही रही| मैंने तो उसके अतीत को कभी नहीं खोदा| उसके कुछ दबावों, हठों को नज़रंदाज़ कर अच्छी स्त्री बनी रही|
कुछ मित्रो ने अनाथालय से बच्चा गोद लेने की बात कही| पर मनीष टाल गया|  गर्मियों की छुट्टी में मैं मायके आ गई| दो माह तक भी मनीष का कोई पत्र नहीं आया| मैं स्वयं ही जब लौटी तो मनीष के कटु व्यवहार से अचम्भित हो गई| वह झुंझलाता, कोसता और बात-बात पर प्रताड़ित करता, 'तुम्हे पहनना-ओढ़ना, बात करना नहीं आता| रुपये कम खर्च करा करो, फ्लैट बुक है| मैं मांग के सिंदूर की अग्नि रेखा में जलती अपने वजूद को सामाजिक सुरक्षा देने हेतु जी रही थी| मैंने इस पर भी पुरे विस्वास से अपने पीएचडी के कार्य को संशोधित करने हेतु मनीष को दे दिया| जिसे उसने कई रीमाइंद्र बावजूद नहीं लौटाया| कुछ समय बाद पता चलने पर मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरे विषय ही पर कुछ संशोधन के बाद मनीष कि छात्रा प्रिया ने थीसिस जमा कर दी|
मेरी चार वर्षो कि मेहनत का यह हश्र होते देख मेरी मनःस्थति फटी कि फटी रह गई| मैं पुरे समय अपनी निकम्मी, डरपोक स्थति में सिमटी स्वयं को आत्महत्या हेतु तैयार कर रही थी| पर आपने ही तो संभाला कि तुम मेरी शिष्य होकर इतनी कायर हो? आदर्श जब अत्याचार बने तो उन्हें छोड़ देना चाहिए| मैडम तभी पूरी शक्ति चेतना से एक झूठ के पुरजोर विरोध में खड़े हो मैं एक बुरी औरत बन गई| समाज में पति का विरोध तो दुराचारिणी ही करती है| मैने चुपचाप कुलपति रजिस्टार को अपनी किनोप्सिस, रफ कार्य पूरा दिखा दिया और मनीष व प्रिया पर इन्कुइरी कमेठी बैठ गई| बस उसी रात मनीष ने मुझे कुर्सी से बांध सिगरेट से दाग कहा, 'बांझ इतनी हिम्मत? मैं अपनी जिंदगी को ले कुछ सोचती कि अचानक मनीष ने माफ़ी मांगी 'अरे यार कुछ ज्यादा ही पि ली थी| माफ़ कर दो| अब ऐसा नहीं होगा|' बस मैं पुनः सती बन गई| कुछ दिनों बाद मनीष ने मुझसे कुछ पेपरों पर दस्तखत करवाए| ये फ्लैट के कागज हैं| लोन पूरा ही हो गया है| अब फ्लैट हमारा होगा| पुरे हफ्ते मनीष प्रेम जता आक्रामक ढंग से मुझे भोगता रहा| और बहार वायवा लेने चला गया| एक हफ्ते ही में मुझे तलाक का नोटिस मिला और पता चला कि मनीष प्रिया के साथ विदेश भी चला गया|
अनेक सनसनाती फूसफुसाहटो व आलोचनाओ के मध्य मैं तड़पती सुनती रही, ' वृंदाजी दूध कि धुली तो न होगी वरना पति क्यों छोड़ता?
मनीष फ्लैट बेच उसके रुपए व हमारे ज्वाइंट अकाउंट से सब निकाल ले गया| रह गई मेरी घायल आत्मा जिसका कोई पंचनामा न हुआ| जर्जर नाव,पुराने किवाडो सी चरमराती मैं गमले के पौधे सी ठिठकी उखड़े नाखुनो सा दर्द सहती जीवन को व्यवस्थित करने कि राह ढूंढ़ रही थी|
*     *     *     *     *     *
प्रमोशन देते समय प्राचार्य  क्लर्क से कह रहे थे- पता नहीं ये फ्रस्तेड लेडी कैसे सब संभालेगी| आंसू व मेमना बन मैं पगडंडी भी नहीं खोज सकती थी| तभी लिखा-
ओ ईश्वर
भीतरी अंधकार में
इस तरह छेद कर
कि प्रकाश ही जगमगाए|
और मैं उसमे खो जाऊँ|
बस कविताएँ, मंच, मस्ती, खा-पि कमाओ, न चाहकर भी स्थितियों आ टकराती हैं| मैं मंत्री उदय शर्मा से टकराई|
 हम अच्छे परिचित हुए| वे कहने लगे, 'यूं तो वृंदा स्त्रियों का अभाव नहीं पर मैं तुम्हे पसंद कर सम्मान करता हूं|
तुम क्यों नहीं मेरी जिंदगी में आ जाती| हम मिलकर एक स्वस्थ राजनीती में उतरेंगे व अपना जीवन संवार लेंगे| मेरी पाक पगडण्डी थी| मैं सारी मान्यताए ताक पर रख कर मनीष के अन्याय के तंत्र को तोड़ती उदय के साथ राजनीती में कुद बुरी औरत बन गई| मैंने अपनी महत्वकांक्षाओ कि पूर्ति हेतु उदय रूपी सीढी आपना ली| उनके साथ घुमती, पीती और राजनीती कि पकड़ तगड़ी करती|
मैंने ही उदय का दोहन किया, वह भी लगाव रहित होकर |
मुझे ताज्जुब था कि कब कैसी मेरी देह में बसंत मुस्कराया और मेरी रेगिस्तान जिंदगी में हरियाली फूटी| हां मैडम मैं दो माह में ही गर्भवती हो गई|
प्रेम कि मिठास, विश्वाश कि कोई सर्वस्वीक्रत परिभाषा तो होती नहीं|  उदय न जाने कब मेरे प्रति गंभीर हो गए| वो जानते थे कि मनीष को तलाक न दे दंडित करना चाहती हूं| इसलिए वो मेरे प्रति प्रतिकारक रहे|
मैं सुबसे जूठ कहकर  कि गर्भ मनीष का है, उदय के बेटे कि माँ बन गई| उदय मुझे मात्र स्त्री नहीं प्राणी समझ मेरी सूझ बुझ व योग्यता को नाप रीझते मेरे बेटे के पुरे पिता बने| उसे सुरक्षा देते रहे|
माँ-पिता ने दूरदुराया तो मैं तल्खी सी तन बोली, 'जलती रही हूं, सिकती रही मैं थक गई| पर आँखे नहीं जली| अब मैं परिणाम, साधन, साध्य परख सकती हू| मुझे धधक कर सती-साध्वी का तगमा नहीं चाहिए| मैं कोई बंधन काट जीने के पैमाने तय करूंगी| सत्य समाज सुनेगा नहीं| मैं निरीह स्त्री सी अत्याचारों में तुलने को सहमत न थी| लगातार पांच वर्षो से समाज सेवा में निष्ठा से उदय के साथ रह राजनीति में कूदी हूं|
राजनीति दलदल है| परन्तु कीचड़ से डरेंगे तो सफाई कौन करेंगा? मैंने साध्य पर ध्यान रखा| दूध कि धुली भी नहीं|
लाभ तो उठाती हूं पर दाल में नमक बराबर लेकिन काम है दाल बराबर| पत्र समाप्त हुआ| वह उठी थी पूजा-पाठ के बाद बरामदे में आते ही देखा कि वृंदा ने अपने कारवां के साथ प्रवेश किया और झुककर उसने उसके पैर छुए, 'मैडम कुछ बनने के चक्कर में बनी एक बुरी औरत|'
मैं हंसी, बैठिए बाल विकास मंत्री जी| कैसी हो और वृंदा को गले लगा वो बोली, आप अपने जैसी और कुछ दुखी स्त्रियों को भी अपना सा बुरा बनती रहे, यही मेरा आशीर्वाद है|
हां, कब कर रही है उदयजी से विवाह|
'जल्दी ही|' वृंदा के चेहरे पर संतुष्टि खिल रही थी| कुछ बन जाने का अहसास उसकी आँखों व व्यक्तित्व को चमका रहा था|

अपने दिल को पत्थर का बना कर रखना

अपने दिल को पत्थर का बना कर रखना , हर चोट के निशान को सजा कर रखना । उड़ना हवा में खुल कर लेकिन , अपने कदमों को ज़मी से मिला कर रखना । छाव में माना सुकून मिलता है बहुत , फिर भी धूप में खुद को जला कर रखना । उम्रभर साथ तो रिश्ते नहीं रहते हैं , यादों में हर किसी को जिन्दा रखना । वक्त के साथ चलते-चलते , खो ना जाना , खुद को दुनिया से छिपा कर रखना । रातभर जाग कर रोना चाहो जो कभी , अपने चेहरे को दोस्तों से छिपा कर रखना । तुफानो को कब तक रोक सकोगे तुम , कश्ती और मांझी का याद पता रखना । हर कहीं जिन्दगी एक सी ही होती हैं , अपने ज़ख्मों को अपनो को बता कर रखना । मन्दिरो में ही मिलते हो भगवान जरुरी नहीं , हर किसी से रिश्ता बना कर रखना । मरना जीना बस में कहाँ है अपने , हर पल में जिन्दगी का लुफ्त उठाये रखना । दर्द कभी आखरी नहीं होता , अपनी आँखों में अश्को को बचा कर रखना । सूरज तो रोज ही आता है मगर , अपने दिलो में ' दीप ' को जला कर रखना

Thursday, September 17, 2009

वरदान - मुँशी प्रेमचँद

विन्घ्याचल पर्वत मध्यरात्रि के निविड़ अन्धकार में काल देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं है और अष्टभुजा देवी का मन्दिर जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों में लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है मंदिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का मान हो जाता था।

अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखायी देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात कहा।

‘माता! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणो पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई। मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ?’

‘माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीर्थयाञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की है। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?’

सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आयी।

‘सुवामा! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है?

सुवामा रोमांचित हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात महारानी ने उसे दर्शन दिये। वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी’ ?

‘हां, मिलेगा।’

‘मैंने बड़ी तपस्या की है अतएव बड़ा भारी वरदान मांगूगी।’

‘क्या लेगी कुबेर का धन’?

‘नहीं।’

‘इन्द का बल।’

‘नहीं।’

‘सरस्वती की विद्या?’

‘नहीं।’

‘फिर क्या लेगी?’

‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।’

‘वह क्या है?’

‘सपूत बेटा।’

‘जो कुल का नाम रोशन करे?’

‘नहीं।’

‘जो माता-पिता की सेवा करे?’

‘नहीं।’

‘जो विद्वान और बलवान हो?’

‘नहीं।’

‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं?’

‘जो अपने देश का उपकार करे।’

‘तेरी बुद्वि को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’

वैराग्य - मुँशी प्रेमचँद

मुँशी शालिग्राम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-वृति वकालत थी और पैतृक सम्पत्ति भी अधिक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका वैभवान्वित गृह आकाश को स्पर्श करता था। उदार ऐसे कि पचीस-तीस हजार की वाषिर्क आय भी व्यय को पूरी न होती थी। साधु-ब्राहमणों के बड़े श्रद्वावान थे। वे जो कुछ कमाते, वह स्वयं ब्रह्रमभोज और साधुओं के भंडारे एवं सत्यकार्य में व्यय हो जाता। नगर में कोई साधु-महात्मा आ जाये, वह मुंशी जी का अतिथि। संस्कृत के ऐसे विद्वान कि बड़े-बड़े पंडित उनका लोहा मानते थे वेदान्तीय सिद्वान्तों के वे अनुयायी थे। उनके चित्त की प्रवृति वैराग्य की ओर थी।




मुंशीजी को स्वभावत: बच्चों से बहुत प्रेम था। मुहल्ले-भर के बच्चे उनके प्रेम-वारि से अभिसिंचित होते रहते थे। जब वे घर से निकलते थे तब बालाकों का एक दल उसके साथ होता था। एक दिन कोई पाषाण-हृदय माता अपने बच्वे को मार थी। लड़का बिलख-बिलखकर रो रहा था। मुंशी जी से न रहा गया। दौड़े, बच्चे को गोद में उठा लिया और स्त्री के सम्मुख अपना सिर झुक दिया। स्त्री ने उस दिन से अपने लड़के को न मारने की शपथ खा ली जो मनुष्य दूसरो के बालकों का ऐसा स्नेही हो, वह अपने बालक को कितना प्यार करेगा, सो अनुमान से बाहर है। जब से पुत्र पैदा हुआ, मुंशी जी संसार के सब कार्यो से अलग हो गये। कहीं वे लड़के को हिंडोल में झुला रहे हैं और प्रसन्न हो रहे हैं। कहीं वे उसे एक सुन्दर सैरगाड़ी में बैठाकर स्वयं खींच रहे हैं। एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से दूर नहीं करते थे। वे बच्चे के स्नेह में अपने को भूल गये थे।



सुवामा ने लड़के का नाम प्रतापचन्द्र रखा था। जैसा नाम था वैसे ही उसमें गुण भी थे। वह अत्यन्त प्रतिभाशाली और रुपवान था। जब वह बातें करता, सुनने वाले मुग्ध हो जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पुष्ट कि द्विगुण डीलवाले लड़कों को भी वह कुछ न समझता था। इस अल्प आयु ही में उसका मुख-मण्डल ऐसा दिव्य और ज्ञानमय था कि यदि वह अचानक किसी अपरिचित मनुष्य के सामने आकर खड़ा हो जाता तो वह विस्मय से ताकने लगता था।



इस प्रकार हंसते-खेलते छ: वर्ष व्यतीत हो गये। आनंद के दिन पवन की भांति सन्न-से निकल जाते हैं और पता भी नहीं चलता। वे दुर्भाग्य के दिन और विपत्ति की रातें हैं, जो काटे नहीं कटतीं। प्रताप को पैदा हुए अभी कितने दिन हुए। बधाई की मनोहारिणी ध्वनि कानों मे गूंज रही थी छठी वर्षगांठ आ पहुंची। छठे वर्ष का अंत दुर्दिनों का श्रीगणेश था। मुंशी शालिग्राम का सांसारिक सम्बन्ध केवल दिखावटी था। वह निष्काम और निस्सम्बद्व जीवन व्यतीत करते थे। यद्यपि प्रकट वह सामान्य संसारी मनुष्यों की भांति संसार के क्लेशों से क्लेशित और सुखों से हर्षित दृष्टिगोचर होते थे, तथापि उनका मन सर्वथा उस महान और आनन्दपूर्व शांति का सुख-भोग करता था, जिस पर दु:ख के झोंकों और सुख की थपकियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।



माघ का महीना था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा हुआ था। रेलगाड़ियों में यात्री रुई की भांति भर-भरकर प्रयाग पहुंचाये जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के वृद्व-जिनके लिए वर्षो से उठना कठिन हो रहा था- लंगड़ाते, लाठियां टेकते मंजिल तै करके प्रयागराज को जा रहे थे। बड़े-बड़े साधु-महात्मा, जिनके दर्शनो की इच्छा लोगों को हिमालय की अंधेरी गुफाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पवित्र तरंगों से गले मिलने के लिए आये हुए थे। मुंशी शालिग्राम का भी मन ललचाया। सुवाम से बोले- कल स्नान है।



सुवामा - सारा मुहल्ला सूना हो गया। कोई मनुष्य नहीं दीखता।



मुंशी - तुम चलना स्वीकार नहीं करती, नहीं तो बड़ा आनंद होता। ऐसा मेला तुमने कभी नहीं देखा होगा।

सुवामा - ऐसे मेला से मेरा जी घबराता है।



मुंशी - मेरा जी तो नहीं मानता। जब से सुना कि स्वामी परमानन्द जी आये हैं तब से उनके दर्शन के लिए चित्त उद्विग्न हो रहा है।



सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब देखा कि यह रोके न रुकेंगे, तब विवश होकर मान गयी। उसी दिन मुंशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गये। चलते समय उन्होंने प्रताप के मुख का चुम्बन किया और स्त्री को प्रेम से गले लगा लिया। सुवामा ने उस समय देखा कि उनके नेञ सजल हैं। उसका कलेजा धक से हो गया। जैसे चैत्र मास में काली घटाओं को देखकर कृषक का हृदय कॉंपने लगता है, उसी भाती मुंशीजी ने नेत्रों का अश्रुपूर्ण देखकर सुवामा कम्पित हुई। अश्रु की वे बूंदें वैराग्य और त्याग का अगाघ समुद्र थीं। देखने में वे जैसे नन्हे जल के कण थीं, पर थीं वे कितनी गंभीर और विस्तीर्ण।



उधर मुंशी जी घर के बाहर निकले और इधर सुवामा ने एक ठंडी श्वास ली। किसी ने उसके हृदय में यह कहा कि अब तुझे अपने पति के दर्शन न होंगे। एक दिन बीता, दो दिन बीते, चौथा दिन आया और रात हो गयी, यहा तक कि पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुंशी जी न आये। तब तो सुवामा को आकुलता होने लगी। तार दिये, आदमी दौड़ाये, पर कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न में समाप्त हो गया। मुंशी जी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब मिट्टी में मिल गयी। मुंशी जी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मात्र के लिए ही नहीं, वरन सारे नगर के लिए एक शोकपूर्ण घटना थी। हाटों में दुकानों पर, हथाइयो में अर्थात चारों और यही वार्तालाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता- क्या धनी, क्या निर्धन। यह शौक सबको था। उसके कारण चारों और उत्साह फैला रहता था। अब एक उदासी छा गयी। जिन गलियों से वे बालकों का झुण्ड लेकर निकलते थे, वहां अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास आने के लिए रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहां थी कि अब प्रमोद सभा भंग हो गयी है। उनकी माताएं ऑंचल से मुख ढांप-ढांपकर रोतीं मानों उनका सगा प्रेमी मर गया है।



वैसे तो मुंशी जी के गुप्त हो जाने का रोना सभी रोते थे। परन्तु सब से गाढ़े आंसू, उन आढतियों और महाजनों के नेत्रों से गिरते थे, जिनके लेने-देने का लेखा अभी नहीं हुआ था। उन्होंने दस-बारह दिन जैसे-जैसे करके काटे, पश्चात एक-एक करके लेखा के पत्र दिखाने लगे। किसी ब्रहृनभोज मे सौ रुपये का घी आया है और मूल्य नहीं दिया गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का सहस्रों का लेखा है। मन्दिर बनवाते समय एक महाजन के बीस सहस्र ऋण लिया था, वह अभी वैसे ही पड़ा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा कि एक उत्तम गृह और तत्सम्बन्धिनी सामग्रियों के अतिरिक्त कोई वस्त न थी, जिससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पत्ति बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न था, जिससे धन प्राप्त करके ऋण चुकाया जाए।



बेचारी सुवामा सिर नीचा किए हुए चटाई पर बैठी थी और प्रतापचन्द्र अपने लकड़ी के घोड़े पर सवार आंगन में टख-टख कर रहा था कि पण्डित मोटेराम शास्त्री - जो कुल के पुरोहित थे - मुस्कराते हुए भीतर आये। उन्हें प्रसन्न देखकर निराश सुवामा चौंककर उठ बैठी कि शायद यह कोई शुभ समाचार लाये हैं। उनके लिए आसन बिछा दिया और आशा-भरी दृष्टि से देखने लगी। पण्डितजी आसान पर बैठे और सुंघनी सूंघते हुए बोले तुमने महाजनों का लेखा देखा?



सुवामा ने निराशापूर्ण शब्दों में कहा-हां, देखा तो।



मोटेराम-रकम बड़ी गहरी है। मुंशीजी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने यहां कुछ हिसाब-किताब न रखा।

सुवामा-हां अब तो यह रकम गहरी है, नहीं तो इतने रुपये क्या, एक-एक भोज में उठ गये हैं।

मोटेराम-सब दिन समान नहीं बीतते।



सुवामा-अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, क्या कर सकती हूं।



मोटेराम- हां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमने भी कुछ सोचा है ?



सुवामा-हां गांव बेच डालूंगी।



मोटेराम-राम-राम। यह क्या कहती हो ? भूमि बिक गयी, तो फिर बात क्या रह जायेगी?



मोटेराम- भला, पृथ्वी हाथ से निकल गयी, तो तुम लोगों का जीवन निर्वाह कैसे होगा?



सुवामा-हमारा ईश्वर मालिक है। वही बेड़ा पार करेगा।



मोटेराम यह तो बड़े अफसोस की बात होगी कि ऐसे उपकारी पुरुष के लड़के-बाले दु:ख भोगें।



सुवामा-ईश्वर की यही इच्छा है, तो किसी का क्या बस?



मोटेराम-भला, मैं एक युक्ति बता दूं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।



सुवामा- हां, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।



मोटेराम-पहले तो एक दरख्वास्त लिखवाकर कलक्टर साहिब को दे दो कि मालगुलारी माफ की जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आंच ना आने पायेगी।



सुवामा-कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतने रुपये कहां से लायेंगी?



मोटेराम- तुम्हारे लिए रुपये की क्या कमी है? मुंशी जी के नाम पर बिना लिखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सच तो यह है कि रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुंह से ‘हां’ निकलने की देरी है।



सुवामा- नगर के भद्र-पुरुषों ने एकत्र किया होगा?



मोटेराम- हां, बात-की-बात में रुपया एकत्र हो गया। साहब का इशारा बहुत था।



सुवामा-कर-मुक्ति के लिए प्रार्थना-पञ मुझसे न लिखवाया जाएगा और मैं अपने स्वामी के नाम ऋण ही लेना चाहती हूं। मैं सबका एक-एक पैसा अपने गांवों ही से चुका दूंगी।



यह कहकर सुवामा ने रुखाई से मुंह फेर लिया और उसके पीले तथा शोकान्वित बदन पर क्रोध-सा झलकने लगा। मोटेराम ने देखा कि बात बिगड़ना चाहती है, तो संभलकर बोले- अच्छा, जैसे तुम्हारी इच्छा। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर यदि हमने तुमको किसी प्रकार का दु:ख उठाते देखा, तो उस दिन प्रलय हो जायेगा। बस, इतना समझ लो।



सुवामा-तो आप क्या यह चाहते हैं कि मैं अपने पति के नाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखूं? मैं इसी घर में जल मरुंगी, अनशन करते-करते मर जाऊंगी, पर किसी की उपकृत न बनूंगी।



मोटेराम-छि:छि:। तुम्हारे ऊपर निहोरा कौन कर सकता है? कैसी बात मुख से निकालती है? ऋण लेने में कोई लाज नहीं है। कौन रईस है जिस पर लाख दो-लाख का ऋण न हो?



सुवामा- मुझे विश्वास नहीं होता कि इस ऋण में निहोरा है।



मोटेराम- सुवामा, तुम्हारी बुद्वि कहां गयी? भला, सब प्रकार के दु:ख उठा लोगी पर क्या तुम्हें इस बालक पर दया नहीं आती?



मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सुवामा सजलनयना हो गई। उसने पुत्र की ओर करुणा-भरी दृष्टि से देखा। इस बच्चे के लिए मैंने कौन-कौन सी तपस्या नहीं की? क्या उसके भाग्य में दु:ख ही बदा है। जो अमोला जलवायु के प्रखर झोंकों से बचाता जाता था, जिस पर सूर्य की प्रचण्ड किरणें न पड़ने पाती थीं, जो स्नेह-सुधा से अभी सिंचित रहता था, क्या वह आज इस जलती हुई धूप और इस आग की लपट में मुरझायेगा? सुवामा कई मिनट तक इसी चिन्ता में बैठी रही। मोटेराम मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि अब सफलीभूत हुआ। इतने में सुवामा ने सिर उठाकर कहा-जिसके पिता ने लाखों को जिलाया-खिलाया, वह दूसरों का आश्रित नहीं बन सकता। यदि पिता का धर्म उसका सहायक होगा, तो स्वयं दस को खिलाकर खायेगा। लड़के को बुलाते हुए ‘बेटा। तनिक यहां आओ। कल से तुम्हारी मिठाई, दूध, घी सब बन्द हो जायेंगे। रोओगे तो नहीं?’ यह कहकर उसने बेटे को प्यार से बैठा लिया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर लिया।



प्रताप- क्या कहा? कल से मिठाई बन्द होगी? क्यों क्या हलवाई की दुकान पर मिठाई नहीं है?



सुवामा-मिठाई तो है, पर उसका रुपया कौन देगा?



प्रताप- हम बड़े होंगे, तो उसको बहुत-सा रुपया देंगे। चल, टख। टख। देख मां, कैसा तेज घोड़ा है।



सुवामा की आंखों में फिर जल भर आया। ‘हा हन्त। इस सौन्दर्य और सुकुमारता की मूर्ति पर अभी से दरिद्रता की आपत्तियां आ जायेंगी। नहीं नहीं, मैं स्वयं सब भोग लूंगी। परन्तु अपने प्राण-प्यारे बच्चे के ऊपर आपत्ति की परछाहीं तक न आने दूंगी।’ माता तो यह सोच रही थी और प्रताप अपने हठी और मुंहजोर घोड़े पर चढ़ने में पूर्ण शक्ति से लीन हो रहा था। बच्चे मन के राजा होते हैं।



अभिप्राय यह कि मोटेराम ने बहुत जाल फैलाया। विविध प्रकार का वाक्चातुर्य दिखलाया, परन्तु सुवामा ने एक बार ‘नहीं करके ‘हां’ न की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार जिसने सुना, धन्य-धन्य कहा। लोगों के मन में उसकी प्रतिष्टा दूनी हो गयी। उसने वही किया, जो ऐसे संतोषपूर्ण और उदार-हृदय मनुष्य की स्त्री को करना उचित था।

इसके पन्द्रहवें दिन इलाका नीलामा पर चढ़ा। पचास सहस्र रुपये प्राप्त हुए कुल ऋण चुका दिया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच दिया गया। मकान में भी सुवामा ने भीतर से ऊंची-ऊंची दीवारें खिंचवा कर दो अलग-अलग खण्ड कर दिये। एक में आप रहने लगी और दूसरा भाड़े पर उठा दिया।