अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब पोथे खाली होते है, जब हर सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,
जब सूरज का लश्कर चाहत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाते हैं,घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,
वो पगली लड़की एक दिन मेरे लिए भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,
जो पगली लडकी कहती है, हाँ प्यार तुझी से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा,
ये कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है
--डॉ. कुमार विश्वास
Monday, October 26, 2009
Saturday, October 17, 2009
कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है
कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है
मै तुझसे दूर कैसा हू तू मुझसे दूर कैसी है
ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है
मोहबत्त एक अहसासों की पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है
यहाँ सब लोग कहते है मेरी आँखों में आसूं है
जो तू समझे तो मोती है जो ना समझे तो पानी है
मै जब भी तेज़ चलता हू नज़ारे छूट जाते है
कोई जब रूप गढ़ता हू तो सांचे टूट जाते है
मै रोता हू तो आकर लोग कन्धा थपथपाते है
मै हँसता हू तो अक्सर लोग मुझसे रूठ जाते है
समंदर पीर का अन्दर लेकिन रो नहीं सकता
ये आसूं प्यार का मोती इसको खो नहीं सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता
भ्रमर कोई कुम्दनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोह्बत्त का
मै किस्से को हक्कीकत में बदल बैठा तो हंगामा
बहुत बिखरा बहुत टूटा थपेडे सह नहीं पाया
हवाओं के इशारों पर मगर मै बह नहीं पाया
अधूरा अनसुना ही रह गया ये प्यार का किस्सा
कभी तू सुन नहीं पाई कभी मै कह नहीं पाया
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है
मै तुझसे दूर कैसा हू तू मुझसे दूर कैसी है
ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है
मोहबत्त एक अहसासों की पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है
यहाँ सब लोग कहते है मेरी आँखों में आसूं है
जो तू समझे तो मोती है जो ना समझे तो पानी है
मै जब भी तेज़ चलता हू नज़ारे छूट जाते है
कोई जब रूप गढ़ता हू तो सांचे टूट जाते है
मै रोता हू तो आकर लोग कन्धा थपथपाते है
मै हँसता हू तो अक्सर लोग मुझसे रूठ जाते है
समंदर पीर का अन्दर लेकिन रो नहीं सकता
ये आसूं प्यार का मोती इसको खो नहीं सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता
भ्रमर कोई कुम्दनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोह्बत्त का
मै किस्से को हक्कीकत में बदल बैठा तो हंगामा
बहुत बिखरा बहुत टूटा थपेडे सह नहीं पाया
हवाओं के इशारों पर मगर मै बह नहीं पाया
अधूरा अनसुना ही रह गया ये प्यार का किस्सा
कभी तू सुन नहीं पाई कभी मै कह नहीं पाया
Thursday, October 15, 2009
ऐ मेरे वतन् के लोगों
ऐ मेरे वतन् के लोगों तुम् खूब् लगा लो नारा ये शुभ् दिन् है हम् सब् का लहरा लो तिरंगा प्यारा पर् मत् भूलो सीमा पर् वीरों ने है प्राण् गँवा कुछ् याद् उन्हें भी कर् लो -२ जो लौट् के घर् न आये -२
ऐ मेरे वतन् के लोगों ज़रा आँख् में भर् लो पानी जो शहीद् हु हैं उनकी ज़रा याद् करो क़ुरबानी
जब् घायल् हु हिमालय् खतरे में पड़ी आज़ादी जब् तक् थी साँस् लड़े वो फिर् अपनी लाश् बिछा दी संगीन् पे धर् कर् माथा सो गये अमर् बलिदानी जो शहीद्॥।
जब् देश् में थी दीवाली वो खेल् रहे थे होली जब् हम् बैठे थे घरों में वो झेल् रहे थे गोली थे धन्य जवान् वो आपने थी धन्य वो उनकी जवानी जो शहीद्॥।
को सिख् को जाट् मराठा को गुरखा को मदरासी सरहद् पे मरनेवाला हर् वीर् था भारतवासी जो खून् गिरा पर्वत् पर् वो खून् था हिंदुस्तानी जो शहीद्॥।
थी खून् से लथ्-पथ् काया फिर् भी बन्दूक् उठाके दस्-दस् को एक् ने मारा फिर् गिर् गये होश् गँवा के जब् अन्त्-समय् आया तो कह् गये के अब् मरते हैं खुश् रहना देश् के प्यारों अब् हम् तो सफ़र् करते हैं क्या लोग् थे वो दीवाने क्या लोग् थे वो अभिमानी जो शहीद्॥।
तुम् भूल् न जा उनको इस् लिये कही ये कहानी जो शहीद्॥। जय् हिन्द्॥। जय् हिन्द् की सेना -२ जय् हिन्द् जय् हिन्द् जय् हिन्द्
अरे द्वारपालों उस कन्हैया से कह दो
देखो देखो यह गरीबी,यह गरीबी कहा ले,
कृष्ण के द्वार पे बिस्वास लेके आया हूँ,
मेरे बचपन का एआर है मेरा श्याम,
यह ही सोच कर में आश कर के आया हूँ.
अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो-ऊऊ….
अरे द्वारपालों उस कन्हैया से कह दो,
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
हा… भटकते भटकते ना जाने कहा से,
भटकते भटकते ना जाने कहा से,
तुम्हारे महल के करीब आगया है.
तुम्हारे महल के करीब आगया है.
ओऊ…अरे द्वारपालों उस कन्हैया से कह दो,
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
ना सरपे है पगरी ना तन पे है जामा,
बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
हा…बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
हा…बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
ना सरपे है पगरी,
ना तन पे है जामा.
बतादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
होऊ….ना सरपे है पगरी ना तन पे है जामा,
बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
होऊ….बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
एक बार मोहन से जा कर के कहे दो,
तुम एक बार मोहन से जा कर के कहे दो,
के मिलने सखा पद नसीब आगेया है.
के मिलने सखा पद नसीब आगेया है.
अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो,
के द्वार पे सुदामा करीब आगेया है.
के द्वार पे सुदामा करीब आगेया है.
सुनते ही दौरे चले आये मोहन,
लागाया गले से सुदामा को मोहन.
हा…लागाया गले से सुदामा को मोहन.
लागाया गले से सुदामा को मोहन.
ओह..सुनते ही दौरे,
चले आये मोहन.
लागाया गले से,
सुदामा को मोहन.
हा…सुनते ही दौरे चले आये मोहन,
लागाया गले से सुदामा को मोहन.
हा…लागाया गले से सुदामा को मोहन.
हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,
हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
कृष्ण के द्वार पे बिस्वास लेके आया हूँ,
मेरे बचपन का एआर है मेरा श्याम,
यह ही सोच कर में आश कर के आया हूँ.
अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो-ऊऊ….
अरे द्वारपालों उस कन्हैया से कह दो,
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
हा… भटकते भटकते ना जाने कहा से,
भटकते भटकते ना जाने कहा से,
तुम्हारे महल के करीब आगया है.
तुम्हारे महल के करीब आगया है.
ओऊ…अरे द्वारपालों उस कन्हैया से कह दो,
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.
ना सरपे है पगरी ना तन पे है जामा,
बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
हा…बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
हा…बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
ना सरपे है पगरी,
ना तन पे है जामा.
बतादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
होऊ….ना सरपे है पगरी ना तन पे है जामा,
बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
होऊ….बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.
एक बार मोहन से जा कर के कहे दो,
तुम एक बार मोहन से जा कर के कहे दो,
के मिलने सखा पद नसीब आगेया है.
के मिलने सखा पद नसीब आगेया है.
अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो,
के द्वार पे सुदामा करीब आगेया है.
के द्वार पे सुदामा करीब आगेया है.
सुनते ही दौरे चले आये मोहन,
लागाया गले से सुदामा को मोहन.
हा…लागाया गले से सुदामा को मोहन.
लागाया गले से सुदामा को मोहन.
ओह..सुनते ही दौरे,
चले आये मोहन.
लागाया गले से,
सुदामा को मोहन.
हा…सुनते ही दौरे चले आये मोहन,
लागाया गले से सुदामा को मोहन.
हा…लागाया गले से सुदामा को मोहन.
हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,
हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.
Tuesday, September 22, 2009
वह जो आदमी है न - हरिशंकर परसाई
निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं. निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है. निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं. निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है. संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं. ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है. संत बड़ा कांइया होता है. हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है. स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी. अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है. मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं. मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे- आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?
मैंने ध्यान नहीं दिया. उन्होंने फिर कहा- वह शराब पीता है. निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है. वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए. अब मुझे दया आ गई. उनका चेहरा उतर गया था. मैंने कहा- पीने दो. वे चकित हुए. बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?
मैंने कहा- हां, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक. उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है. उन्हें संतोष नहीं हुआ. वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे. तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले- आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?
अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए. कहने लगे- ये तो प्राईवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब. मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राईवेट बात है. मगर इससे आपको जरूर मतलब है. किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे- वह बड़ा दुराचारी है. वह उड़द की दाल खाता है. तनाव आ गया. मैं पोलाइट हो गया- छोड़ो यार, इस बात को. वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं. सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है. कहते हैं- तुमने मुझे अमर बना दिया. यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं.(ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी.) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे.
चेतना का विस्तार. हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं. एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं. पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं. कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं. वे यों भी भले आदमी हैं. पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते. मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है. इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं- मिरगी की तरह. सुना है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है. इसका उल्टा भी होता है. किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है. यह नुस्खा भी आजमाया हुआ है. एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था. एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे(आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं. वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं). यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं. उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे. कबीर ने कहा है- ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’. यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले. नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था. हमने कहा- अब इन्हें मत भेजो. ये अंग्रेजी बोलने लगे. पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था. कहने कहने लगे- नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा. ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए. थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं. जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए. यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है. रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है. ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है. कहा- इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री. और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे. जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो. तुमने ‘इंडिया’ खा लिया. बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो. अंग्रेज ने कहा- अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं. हम तो जाते हैं. तुम खाते रहना. यह बातचीत 1947 में हुई थी. हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई. बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर है- सत्ता का हस्तांतरण. मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ- थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई. वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे. ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं.
फिर राजनीति आ गई. छोडि़ए. बात शराब की हो रही थी. इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर. नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी. मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था. मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था. मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं. वह शराब से स्त्री पर आ गया- और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं.
मैंने कहा- हां, यह बड़ी खराब बात है.
उसका चेहरा अब खिल गया. बोला- है न?
मैंने कहा- हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है.
वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया. सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊंचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा. वह उठ गया. और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है. कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं. आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है. किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए. ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं. हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं- तेरे भीतर क्या छिपा है?
एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं- उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए. वह चरित्रहीन है. वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है. उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे. जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है- ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी. वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता. एक स्त्री से उसकी मित्रता है. इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया. बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का. कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए. वे परेशान होंगे. बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है. तब उन्होंने कहा होगा- ज्यादा झंझट में मत पड़ो. मामला सरल कर लो. सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच में रख लो.
मैंने ध्यान नहीं दिया. उन्होंने फिर कहा- वह शराब पीता है. निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है. वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए. अब मुझे दया आ गई. उनका चेहरा उतर गया था. मैंने कहा- पीने दो. वे चकित हुए. बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?
मैंने कहा- हां, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक. उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है. उन्हें संतोष नहीं हुआ. वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे. तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले- आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?
अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए. कहने लगे- ये तो प्राईवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब. मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राईवेट बात है. मगर इससे आपको जरूर मतलब है. किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे- वह बड़ा दुराचारी है. वह उड़द की दाल खाता है. तनाव आ गया. मैं पोलाइट हो गया- छोड़ो यार, इस बात को. वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं. सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है. कहते हैं- तुमने मुझे अमर बना दिया. यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं.(ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी.) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे.
चेतना का विस्तार. हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं. एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं. पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं. कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं. वे यों भी भले आदमी हैं. पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते. मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है. इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं- मिरगी की तरह. सुना है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है. इसका उल्टा भी होता है. किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है. यह नुस्खा भी आजमाया हुआ है. एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था. एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे(आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं. वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं). यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं. उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे. कबीर ने कहा है- ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’. यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले. नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था. हमने कहा- अब इन्हें मत भेजो. ये अंग्रेजी बोलने लगे. पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था. कहने कहने लगे- नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा. ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए. थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं. जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए. यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है. रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है. ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है. कहा- इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री. और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे. जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो. तुमने ‘इंडिया’ खा लिया. बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो. अंग्रेज ने कहा- अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं. हम तो जाते हैं. तुम खाते रहना. यह बातचीत 1947 में हुई थी. हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई. बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर है- सत्ता का हस्तांतरण. मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ- थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई. वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे. ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं.
फिर राजनीति आ गई. छोडि़ए. बात शराब की हो रही थी. इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर. नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी. मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था. मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था. मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं. वह शराब से स्त्री पर आ गया- और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं.
मैंने कहा- हां, यह बड़ी खराब बात है.
उसका चेहरा अब खिल गया. बोला- है न?
मैंने कहा- हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है.
वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया. सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊंचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा. वह उठ गया. और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है. कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं. आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है. किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए. ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं. हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं- तेरे भीतर क्या छिपा है?
एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं- उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए. वह चरित्रहीन है. वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है. उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे. जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है- ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी. वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता. एक स्त्री से उसकी मित्रता है. इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया. बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का. कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए. वे परेशान होंगे. बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है. तब उन्होंने कहा होगा- ज्यादा झंझट में मत पड़ो. मामला सरल कर लो. सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच में रख लो.
भोलाराम का जीव - श्री हरिशंकर परसाई
धर्मराज लाखों वर्षो से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग और नरक में निवास-स्थान अलाट करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।
सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोरों से बन्द किया कि मख्खी चपेट में आगई। उसे निकालते हुए वे बोले, ''महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पांच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर अभी तक यहां नहीं पहुंचा।''
धर्मराज ने पूछा, ''और वह दूत कहां है?''
''महाराज, वह भी लापता है।''इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहां आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत होगया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, ''अरे तू कहां रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहां है?''
यमदूत हाथ जोडक़र बोला, ''दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊं कि क्या हो गया। आज तक मैने धोखा नहीं खाया था, पर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पांच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागा, तब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्योंही मैं इसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्योंही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहां गायब होगया। इन पांच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर उसका पता नहीं चला।''
धर्मराज क्रोध से बोले, ''मूर्ख, जीवों को लाते-लाते बूडा हो गया, फिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।''
दूत ने सिर झुकाकर कहा, ''महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके, पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''महाराज, आजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते है, और वे रास्ते में ही रेलवे वाले उडा देते हैं। होज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाडी क़े डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उडा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद, खराबी करने के लिए नहीं उडा दिया?''
धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, ''तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला, भोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?''
इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि वहां आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, ''क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बेठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?''
धर्मराज ने कहा, ''वह समस्या तो कभी की हल हो गई। नरक में पिछले सालों से बडे ग़ुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाई। बडे-बडे इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपा, जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक विकट उलझन आगई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पांच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहां ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।''
नारद ने पूछा, ''उस पर इनकम टैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने उसे रोक लिया हो।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।''
नारद बोले, ''मामला बडा दिलचस्प है। अच्छा, मुझे उसका नाम, पता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूं।''
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया - ''भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लडक़े और एक लडक़ी। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पांच साल पहले रिटायर हो गया था, मकान का उस ने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड दिया। आज पांचवां दिन है। बहुत संभव है कि, अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसने भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।''
मां बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहिचान गए।
द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, ''नारायण नारायण !'' लडक़ी ने देखकर कहा, ''आगे जाओ महाराज।''
नारद ने कहा, ''मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी मां को ज़रा बाहर भेजो बेटी।''
भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, ''माता, भोलाराम को क्या बिमारी थी?''क्या बताऊं? गरीबी की बिमारी थी। पांच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थे, पर पेन्शन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थे, पर वहां से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेन्शन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पांच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।''
नारद ने कहा, ''क्या करोगी मां? उनकी इतनी ही उम्र थी।''
''ऐसा मत कहो, महाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेन्शन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पांच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौडी नहीं मिली।''
दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, ''मां, यह बताओ कि यहां किसी से उनका विषेश प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?''
पत्नी बोली, ''लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से होता है।''
''नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, कोई स्त्री?''स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, ''बको मत महाराज ! साधु हो, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आंख उठाकर नहीं देखा।''
नारद हंस कर बोले, ''हां, तुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा माता, मैं चला।'' व्यंग्य समझने की असमर्थता ने नारद को सती के क्रोध की ज्वाला ने बचा लिया।
स्त्री ने कहा, ''महाराज, आप तो साधु हैं, सिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रूकी पेन्शन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?''
नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, ''साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहां कोई मठ तो है नहीं? फिर भी सरकारी दफ्तर में जाऊंगा और कोशिश करूंगा।''
वहां से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुंचे। वहां पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, ''भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थीं, पर उनपर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।''
नारद ने कहा, ''भई, ये पेपरवेट तो रखे हैं, इन्हें क्यों नहीं रख दिया?''
बाबू हंसा, ''आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।''नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजा, चौथे ने पांचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, '' महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहां साल-भर भी चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बडे साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जाएगा।''
नारद बडे साहब के कमरे में पहुंचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थे, इसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बडे नाराज़ हुए।बोले, इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धडधडाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?''
नारद ने कहा, ''कैसे भेजता, चपरासी सो रहा है।''
''क्या काम है?'' साहब ने रौब से पूछा।
नारद ने भोलाराम का पेन्शन-केस बतलाया।
साहब बोले, ''आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी मन्दिर है। यहां भी दान-पुण्य करना पडता है, भेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड रही हैं, उन पर वज़न रखिए।''
नारद ने सोचा कि फिर यहां वज़न की समस्या खडी हो गई। साहब बोले, ''भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेन्शन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता है, तब पक्की होती है। हां, जल्दी भी हो सकती है, मगर '' साहब रूके।
नारद ने कहा, ''मगर क्या?''साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, ''मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लडक़ी गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधु-संतों की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लडक़ी जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।''
नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर संभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, ''लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेन्शन का आर्डर निकाल दीजिए।''
साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।
साहब ने हुक्म दिया, ''बडे बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।''
थोडी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेन्शन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, ''क्या नाम बताया साधुजी आपने!''
नारद समझे कि ऊंचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, ''भोलाराम।''
सहसा फाइल में से आवाज़ आई, ''कौन पुकार रहा है मुझे? पोस्टमैन है क्या? पेन्शन का आर्डर आ गया क्या?''
साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, ''भोलाराम, तुम क्या भोलाराम के जीव हो?''
''हां।'' आवाज़ आई।
नारद ने कहा, ''मैं नारद हूं। मैं तुम्हें लेने आया हूं। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।''
आवाज़ आई, ''मुझे नहीं जाना। मैं तो पेन्शन की दरखास्तों में अटका हूं। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरखास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता।''
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